लखनऊ, 15 अक्टूबर (आईएएनएस)। बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के खिसक रहे जनाधार को देखते हुए आजाद समाज पार्टी अपने को नए विकल्प के तौर पर पेश करने में जुटी है। इसी कारण पार्टी ने पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में दो राज्यों -- राजस्थान और मध्यप्रदेश में अपने प्रत्याशी उतारकर इसकी शुरुआत कर दी है।राजनीतिक जानकार बताते हैं कि लोकसभा चुनाव 2024 के लिए सभी दल अपने-अपने हिसाब से जातीय समीकरण दुरुस्त करने में जुट गए हैं। सर्वाधिक 80 सीटों वाले यूपी में जातीय राजनीति आज भी काफी असरकारी है। इसे देखते हुए ही सियासी पार्टियों ने जातीय प्रभाव रखने वाले क्षेत्रीय दलों को अपने साथ रखा है। जहां तक बसपा का सवाल है, वो लोकसभा के चुनावी मैदान में अकेले उतरने का एलान कर चुकी है। 2012 में सत्ता से बेदखल होने के बाद चुनावी प्रदर्शन में बसपा का ग्राफ लगातार गिर रहा है। मायावती भी सियासी जमीन पर बहुत ज्यादा सक्रिय नजर नहीं आ रही हैं। 2022 के चुनाव के बाद उन्होंने कोई भी रैली नहीं की है। इतना ही नहीं बसपा प्रमुख ने प्रदेश के किसी भी जिले का दौरा भी नहीं किया है, जिससे पार्टी के कोर वोटबैंक दलित समुदाय के छिटकने की बातें सामने आई है। यही वजह है कि आजाद समाज पार्टी के मुखिया चंद्रशेखर आजाद न केवल कांशीराम की सियासी विरासत के सहारे दलितों के दिल में जगह बनाने, बल्कि बसपा के सिकुड़ने से खाली हो रही सियासी जमीन को अपने पाले में लाने में जुटे हैं। उनकी इस मेहनत के बाद दलित वोट, खासकर जाटव, किसके पक्ष में आते हैं, यह राजस्थान और मध्यप्रदेश के चुनाव परिणामों से स्पष्ट हो जाएगा।
संविधान संरक्षण मंच के मुखिया और दलित विषयों के जानकर गौतम राणे सागर ने बताया कि बसपा की स्वीकार्यता का ग्राफ गिर रहा है। जिनके दम पर बसपा बनी थी, उन्होंने मनसा वाचा कर्मणा का मूल मंत्र दिया था। परिणाम देखें तो बसपा के कर्मों में किस तरह से जंग लग गई है सभी जान रहे हैं।। घर में बैठकर परिवर्तन हो रहा है। काडर वोट बचा नहीं है। इमोशनल वोटर जो बचा है वो भी संवादहीनता के चलते छिटक रहा है। चंद्रशेखर विकल्प नहीं बन पाएंगे। उनके साथ विचारधारा की बहुत बड़ी कमी है। कैसे संगठन चलता है, कैसे विचार रखे जाते हैं, इसका अभाव दिखता है। भीड़ उनके पास बेरोजगार लड़कों की है, जिन्हें कहीं काम करने का अवसर नहीं मिलता है, वे भीम आर्मी में जुड़कर नीला पटका पहनकर भीड़ बढ़ा देते हैं। वोट में तब्दील होने वाला संदेश नहीं दे पाते हैं।
चंद्रशेखर के राजस्थान और मध्यप्रदेश में चुनाव लड़ने के बारे में उन्होंने कहा कि उनके पास कहीं भी वोट बैंक नहीं है। इन दोनों के इतर तीसरा विकल्प कोई और बनेगा लेकिन उसमें अभी समय लगेगा।
उन्होंने बताया किसी भी मूवमेंट को चलाने के लिए तीन विषयों की बड़ी जरूरत होती है। पहला काडर बेस, दूसरा मास, तीसरा एक्सीडेंटल। चंद्र शेखर एक्सीडेंटल लीडर है, लेकिन उनके पास विजन नहीं है।
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक रतनमणि लाल कहते है कि चंद्रशेखर रावण ने जिन जगहों पर राजनीति में अपनी जगह बनाने की कोशिश की थी, वहां पर सपा और बसपा थीं। इसीलिए इन दोनों पार्टियों ने इसे कोई ज्यादा महत्व नहीं दिया। बसपा मुखिया ने तो बहुत उल्टा सीधा सुनाया है। कम समय की राजनीति में चंद्रशेखर ने भांफ लिया कि मायावती अब कहीं निकलती नहीं है। किसी से मिलती नहीं है। उसी कमजोरी को जानकर यह जगह भरने का प्रयास कर रहे हैं। सपा समझ रही है कि चंद्रशेखर जहां-जहां पांव जमाने का प्रयास करेंगे, सपा वहां काउंटर करेगी। चंद्रशेखर बसपा को विकल्प बनकर सपा को टक्कर देने के प्रयास में लगें हैं। इसी कारण उन्होंने नगीना सीट पर भी फोकस कर रखा है।
बसपा के प्रदेश अध्यक्ष विश्व नाथ पाल कहते हैं कि आजाद समाज पार्टी जैसे पहले भी कई पार्टी आ चुकी है। उदित राज भी बसपा का विकल्प बनने निकले थे। बाद में भाजपा से सांसद बनकर खत्म हो गए। आजाद समाज पार्टी के मुखिया 2022 के चुनाव में सपा से गठबंधन के लिए रो रहे थे। बसपा मुखिया ने जिन जनपदों के नाम महपुरुषों के नाम रखे थे, उसे किसने बदला है, यह सभी जानते हैं। अनुसूचित समाज के महापुरुषों के नाम को सपा ने मिटाकर अपमानित किया था। आजाद समाज पार्टी के मुखिया ऐसे लोगों के साथ मिलकर घूमते हैं। अगर वे बहुजन के लिए काम करते हैं तो जिनकी सरकार ने बहुजनों को अपमानित किया है उनके साथ गठबधन के लिए क्यों रो रहे हैं। अलग दल बनाने की जरूरत क्यों पड़ी। ऐसे लोग भाजपा सपा का विकल्प नहीं बनते हैं, बस बसपा का विरोध करते हैं। ऐसे लोगों को कोई स्वीकार्यता नहीं होती है।
आजाद समाज पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष सुनील चित्तौड़ कहते हैं कि लोकतंत्र में सबको अपनी बात कहने का हक है। सभी को चुनाव लड़ने का अधिकार है। बसपा के कमजोर होने के सवाल पर चितौड़ ने कहा कि 2014 में आजाद समाज पार्टी तो थी नहीं लेकिन बसपा जीरो हो गई। 2019 में केवल 10 सीटें ही जीत पाई। वहीं 2022 के चुनाव में एक 105 सीट पर ही चुनाव लड़े बाकी 300 सीट क्यों नहीं जीत पाई। अगर ये लोग कांशीराम के आदर्शों को मानते हैं तो वे तो पूरे देश में भ्रमण करते थे, मायावती कहीं भी नहीं जाती हैं। किसी भी आंदोलन और शोषण को लेकर सड़कों पर कभी नहीं उतरती हैं। जो पार्टी 206 विधायक जीतती थी, वो केवल एक सीट पर सिमट गई। बहुजन समाज के हक और अधिकार के लिए जब लड़ नहीं रही है तो लोग इनके साथ क्यों आयेंगे। जो लोग उनके हक के लिए सड़कों पर आयेंगे तो जनता उसी की ओर रुख करेगी। महापुरुषों के नाम बदलने वाले लोगों के साथ गठबंधन पहले किसने किया। पहले अपनी ओर देखें, फिर दूसरे पर उंगली उठाएं।
उन्होंने कहा कि हमारा संगठन पूरे देश में है। सभी जगहों पर सेक्टर से लेकर जिला कमेटी तक काफी मजबूती से काम कर रही है। इसी कारण हम मध्य प्रदेश और राजस्थान में चुनाव लड़ रहे हैं। लोकसभा चुनाव की पूरी तैयारी है। अभी तक 14 राज्यों में हमारा संगठन विधानसभा स्तर तक पहुंच गया है।
--आईएएनएस
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