iGrain India - नई दिल्ली । पिछले अनेक वर्षों से भारत दुनिया में चावल का सबसे बड़ा निर्यातक तथा खाद्य तेलों का सबसे प्रमुख आयातक देश बना हुआ है और निकट भविष्य में उसके इस पोजीशन में बदलाव होने की संभावना नहीं है।
लेकिन अर्थ शास्त्रियों का कहना है कि दीर्घ कालीन अवधि में यह समीकरण देश के लिए आर्थिक दृष्टि से नुकसान दायक साबित हो सकता है।
एक विशेषज्ञ के अँसुअर यद्यपि भारत से अनेक कृषि उत्पादों का निर्यात होता है मगर चावल उसमें सबसे महत्वपूर्ण है। वर्तमान समय में देश से औसतन 180-200 लाख टन चावल का वार्षिक निर्यात होता है जबकि धान की खेती के लिए पानी की खपत सबसे ज्यादा होती है।
इसके अलावा धान से वातावरण में मिथेन गैस का उत्सर्जन भी होता है जिससे तापमान बढ़ने का खतरा रहता है। इसे देखते हुए सभी राज्यों की भौगोलिक एवं जलवायु की स्थिति पर विचार करके राष्ट्रीय स्तर पर एक फसल रणनिति बनाए जाने की सख्त जरूरत है।
दूसरी ओर विदेशों से हाल के वर्षों में खाद्य तेलों का आयात जिस तेज गति से बढ़ा है वह निश्चित रूप से गहरी चिंता का विषय है। 2023-24 के मार्केटिंग सीजन में देश के अंदर करीब 15.90 अरब डॉलर मूल्य के 160 लाख टन खाद्य तेल का आयात हुआ जबकि 2022-23 सीजन के दौरान 165 लाख टन खाद्य तेलों के आयात पर 16.65 अरब डॉलर का खर्च बैठा था।
आगे यह आयात खर्च और भी बढ़ने की संभावना है। इसके मुकाबले चावल के वार्षिक निर्यात से प्राप्त होने वाली आमदनी 9-10 अरब डॉलर के करीब ही रहती है।
विशेषज्ञ ने सुझाव दिया है कि धान की खेती में धीरे-धीरे कटौती करके तिलहन फसलों का रकबा बढ़ाने पर जोर देने की आवश्यकता है। खाद्य तेलों का रिकॉर्ड आयात राष्ट्रीय अर्थ व्यवस्था पर भारी दबाव डाल रहा है और इससे छुटकारा पाने का मार्ग जितनी जल्दी खोज लिया जाए उतना ही अच्छा होगा।
इसके लिए किसानों को पर्याप्त प्रोत्साहन किए जाने तथा उत्पादन की नई-नई तकनीक अपनाने की आवश्यकता है। तिलहन का दाम किसानों के लिए आकर्षक होना चाहिए जबकि खाद्य तेलों के आयात में क्रमिक रूप से कटौती का प्रयास किया जाना चाहिए।