iGrain India - मुम्बई । वर्तमान समय में खाद्य तेलों के वैश्विक एवं घरेलू बाजार भाव में शीर्ष स्तर के मुकाबले काफी गिरावट आने से आम उपभोक्ताओं को थोड़ी राहत जरूर मिल रही है लेकिन इसे अस्थायी राहत माना जा रहा है क्योंकि वैश्विक बाजार भाव उछलते ही भारत में भी इसका दाम ऊंचा और तेज हो जाएगा।
खाद्य तेलों का दाम नरम पड़ने से सरकार भी राहत की सांस ले रही है जबकि इसमें आत्मनिर्भरता हासिल करने की चर्चा थम गई है।
दरअसल देश में कुछ खास कारणों से खाद्य तेलों की मांग और खपत लगातार तेजी से बढ़ती जा रही है जबकि इसके अनुरूप उत्पादन में बढ़ोत्तरी नहीं हो रही है।
इसके फलस्वरूप विदेशी खाद्य तेलों के विशाल आयात की आवश्यकता बनी रहती है। एक तो देश की जनसंख्या बढ़ रही है और प्रति व्यक्ति आय में भी सुधार आ रहा है जबकि लोगों की खाद्य शैली में होने वाला बदलाव भी खाद्य तेलों की खपत बढ़ाने में सहयोग कर रहा है।
पिछले दो दशकों के दौरान भारत में पाम तेल की मांग एवं खपत में जबरदस्त इजाफा हुआ है और इसके पीछे-पीछे सोयाबीन तेल तथा सूरजमुखी तेल की खपत भी तेजी से बढ़ी है।
घरेलू स्रोतों से प्राप्त खाद्य तेलों के संवर्ग में केवल सरसों तेल अपनी पकड़ मजबूत बनाए हुए है जबकि मूंगफली तेल की खपत अनिश्चित रहती है।
सम्पूर्ण खाद्य तेल बाजार में कच्चे तेल, रिफाइंड तेल एवं वनस्पति (घी) की भागीदारी मोटे तौर पर क्रमश: 35 प्रतिशत, 60 प्रतिशत एवं 5 प्रतिशत रहती है। 50 प्रतिशत से अधिक खाद्य तेलों की घरेलू मांग एवं जरूरत को विदेशों से आयात के जरिए पूरा किया जाता है।
भारत में खाद्य तेलों की कुल खपत वर्ष 2001 में 84 लाख टन के करीब रही थी जो बढ़ते हुए 2011 में 174 लाख टन और 2021 में 272 लाख टन पर पहुंच गई। इसका मतलब यह हुआ कि पिछले दो दशकों के दौरान इसकी खपत तीन गुना से भी ज्यादा बढ़ गई।
इसकी प्रति व्यक्ति औसत खपत भी बढ़कर 19.9 किलो वार्षिक के करीब हो गई। यदि जनसंख्या इसी तरह बढ़ती रही तो वर्ष 2030 तक 150 करोड़ भारतीयों के लिए 300 लाख टन तथा 2040 तक 167 करोड़ लोगों के लिए 330 लाख टन खाद्य तेल की जरूरत पड़ेगी।
इस विशाल लक्ष्य को हासिल करने के लिए सरकार सहित सभी सम्बद्ध पक्षों को एक साथ मिलकर कठिन प्रयास करना पड़ेगा।