iGrain India - नई दिल्ली । एक अग्रणी शोध संस्थान द्वारा किए गए अध्ययन से पता चला है कि भारत में पिछले तीन वर्षों के दौरान वर्षा पर आश्रित क्षेत्रों में खेती करने वाले 76 प्रतिशत से अधिक किसान तथा सिंचाई सुविधा वाले इलाकों के 55 प्रतिशत उत्पादकों का लगभग आधा उत्पादन बर्बाद हो गया। दरअसल बारिश के असमान वितरण के कारण कई क्षेत्रों में बाढ़ की विभीषका रहती है तो कई इलाके सूखे की चपेट में फंस जाते हैं।
इसके अलावा कीड़ों-रोगों के भीषण आघात से भी फसलों को भारी नुकसान होता है। यह अब प्रत्येक साल का किस्सा हो गया है।
संस्थान द्वारा छह राज्यों एवं पांच इकोलॉजिकल जोन के आठ जिलों-जालना, सतारा, धारवाड़, कलबुर्गी, नरसिंहपुर, हनुमान कोंडा, सत्य साई तथा महेंद्रगढ़ के 201 किसानों पर यह अध्ययन किया गया।
उन किसानों को लघु कृषक की श्रेणी में रखा गया जिसके पास वर्षा आश्रित क्षेत्र में 3-7 एकड़ तथा सिंचित इलाकों में 1-3 एकड़ की जमीन थी। संस्थान के निदेशक का कहना है कि यह अध्य्यन- सर्वेक्षण इस बात का पता लगाने के उद्देश्य से किया गया कि जलवायु परिवर्तन का किसानों पर क्या प्रभाव पड़ता है। उन किसानों का दुख-दर्द सबके सामने उजागर करना आवश्यक था।
किसानों का कहना था कि बारिश की असमानता मुख्य समस्या है। कई क्षेत्रों में एक वर्ष अत्यन्त मुसलाधार बारिश एवं बाढ़ से तो दूसरे वर्ष सूखा एवं अनावृष्टि से फसलें चौपट हो जाती हैं। इसी तरह खासकर कपास जैसी फसलों को कीड़ों-रोगों से भारी क्षति होती है।
लालमिर्च एवं मक्का सहित कुछ अन्य फसलें भी इसके प्रकोप से प्रभावित होती है। यद्यपि इसकी रोकथाम के लिए कीटनाशी दवाओं एवं रसायनों का उपयोग किया जाता है लेकिन फिर भी नुकसान हो जाता है।
रासायनिक उर्वरकों पर खर्च बढ़ता जा रहा है। किसानों की शिकायत यह है कि एक तो दूर-दराज के इलाकों में कृषि उत्पादों की सरकारी खरीद नहीं या नगण्य होती है और दूसरे, न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के निर्धारण के दौरान प्राकृतिक आपदाओं तथा रोगों- कीड़ों से फसल को होने वाले नुकसान के कारण को नजरअंदाज कर दिया जाता है। इससे किसानों की आमदनी काफी घट जाती है।