बीजिंग, 3 सितंबर (आईएएनएस)। जैसे-जैसे प्राकृतिक ऊर्जा के भंडार का मनुष्य दोहन कर रहा है, वैसे-वैसे इन परंपरागत ऊर्जा भंडारों में कमी भी हो रही है। ऐसे में अपनी ऊर्जा जरूरतों की पूर्ति के लिए हमेशा से ही गैरपरंपरागत ऊर्जा के स्त्रोतों की ओर देखा जाता है और इसी के चलते परमाणु ऊर्जा का भी विकल्प दिखाई देता है।दुनिया में वर्ष 1950 में पहली बार परमाणु ऊर्जा पावर प्लांट की स्थापना हुई थी और तब से वर्ष 2022 तक दुनिया के तमाम परमाणु ऊर्जा पावर प्लांट करीब 350 गिगावाट की बिजली उत्पन्न कर रहे हैं। अन्य बिजली बनाने के स्रोतों की तुलना में परमाणु ऊर्जा से बन रही बिजली सिर्फ 10 फीसदी ही है। दुनिया भर में ऐसे करीब 400 परमाणु रिएक्टर हैं जो बिजली बनाने के कार्य में जुटे हुए हैं। सामान्य तौर पर परमाणु ऊर्जा का लाभ यह होता है कि इसके बिजली उत्पादन में कम कार्बन का उत्सर्जन होता है और पानी से बनने वाली बिजली के मुकाबले इसका स्थान दूसरा है यानी पानी से बनने वाली बिजली में सबसे कम कार्बन उत्सर्जन होता है।
जलवायु परिवर्तन के संकट का सामना कर रहे हमारे ग्रह पर सभी देश इस बात का संकल्प ले चुके हैं कि आने वाले 50 साल में न्यूनतम कार्बन उत्सर्जन या नेट ज़ीरो की ओर कदम बढ़ाना है। ऐसे में परमाणु ऊर्जा का स्त्रोत एक विकल्प के रूप में तो उभरा है लेकिन इसमें खर्चा भी काफी होता है। साथ ही किसी भी दुर्घटना होने की स्थिति में जान-माल और आसपास के पर्यावरण को काफी नुकसान पहुंचता है और उसके दुष्परिणाम वर्षों तक भुगतने पड़ते हैं।
दुनिया में आखिरी बार ऐसा वर्ष 2011 में देखने को मिला था जब भूकंप और सुनामी की वजह से जापान के फुकुशिमा परमाणु संयंत्र को नुकसान पहुंचा था। मौजूदा समय में इस संयंत्र के परमाणु कचरे के निष्पादन पर सभी पर्यावरण विशेषज्ञ चिंता जता रहे हैं। इस कचरे को प्रशांत महासागर में छोड़ा जा रहा है जिससे समुद्री जीवों और समुद्री ईकोसिस्टम को लेकर चिंताएं जताई जा रही हैं। साथ ही बड़ी चिंता इस बात की भी है कि इस परमाणु कचरे की वजह से समुद्री जीवों को भोजन के रुप में ग्रहण करने वाले लोगों तक भी इसका असर हो सकता है यानी मनुष्य के शरीर में भी भोजन के जरिए रेडियोएक्टिव तत्व पहुंचने का खतरा हो सकता है। साथ ही इस क्षेत्र की सी-फूड को भी शंका के साथ इस्तेमाल किए जाने की भी चिंता गहरी हो सकती है।
माना जा रहा है कि फुकुशिमा संयंत्र के परमाणु कचरे को अगले तीस साल तक छोड़ा जाता रहेगा। लिहाजा चिंता इस बात की है कि ट्रीट किए हुए न्यूक्लियर पानी में रेडियोएक्टिव तत्व थोड़े भी मौजूद रहते हैं तो वे समुद्री जीवों और मनुष्यों दोनों को ही काफी हानि पहुंचा सकते हैं।
दुनिया में इसके पहले भी परमाणु संयंत्रों में दुर्घटनाएं हुई हैं और उसका विनाशकारी असर पूरी मानव जाति पर अगले कई वर्षों तक होता रहा है। इसी वजह से रेडियोएक्टिव तत्वों और परमाणु कचरे के उचित निष्पादन को भी बहुत ही जरूरी माना जाता है। साथ ही अगर परमाणु तत्व प्राकृतिक पर्यावरण के संपर्क में आते हैं तो मनुष्यों और जीवों की आने वाली पीढ़ी के लिए भी खतरनाक साबित हो सकते हैं, साथ ही पेड़-पौधों, जल, समुद्र के लिए भी हानिकारक होते हैं।
(साभार- चाइना मीडिया ग्रुप, पेइचिंग)
--आईएएनएस
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