रांची, 23 जनवरी (आईएएनएस)। झारखंड का गोमो कस्बा नेताजी सुभाष चंद्र बोस के 'द ग्रेट एस्केप' का अहम पड़ाव रहा है। आजादी के लिए सशस्त्र संघर्ष छेड़ने के अपने इरादे को अंजाम तक पहुंचाने और आजाद हिंद फौज को कायम करने के लिए उन्होंने जब देश छोड़ा था, तो उन्होंने आखिरी घंटे गोमो में गुजारे थे। सुभाष चंद्र बोस के देश छोड़ने की यही परिघटना भारतीय आजादी के इतिहास में 'द ग्रेट एस्केप' के नाम से जानी जाती है।
गोमो स्टेशन से ही वह कालका मेल पकड़कर दिल्ली और फिर वहां से फ्रंटियर मेल पर सवार होकर पेशावर के लिए रवाना हुए थे। अब गोमो जंक्शन को नेताजी सुभाष चंद्र बोस जंक्शन के नाम से जाना जाता है। वो तारीख थी 18 जनवरी, 1941, जब कोलकाता के एल्गिन रोड स्थित अपने आवास में अंग्रेजी हुकूमत द्वारा नजरबंद किये गये नेताजी पुलिस को चकमा देकर निकल भागे थे।
अंग्रेजी हुकूमत के सख्त पहरे के बावजूद उनके कोलकाता से निकलने की योजना बांग्ला वालंटियर के सत्यरंजन बख्शी ने बनायी थी। वह अपने घर से निकलने के बाद अपने भतीजे डॉ. शिशिर बोस के साथ वांडरर कार (बीएलए 7169) से उस रोज रात आठ बजे गोमो पहुंचे थे और यहां लोको बाजार में रहनेवाले अपने वकील मित्र शेख मोहम्मद अब्दुल्ला के घर पहुंचे थे।
उन्होंने शेख अब्दुल्ला से पेशावर जाने की अपनी योजना साझा की। तय हुआ कि वह पठान का भेष धरकर स्टेशन से हावड़ा-पेशावर मेल 63 अप ट्रेन पकड़ेंगे। शेख अब्दुल्ला के कहने पर गोमो के अमीन दर्जी ने उनके लिए आनन-फानन में पठान ड्रेस तैयार की। अमीन दर्जी ने ही रात एक बजे उन्हें स्टेशन पहुंचाया, जहां तीन नंबर प्लेटफार्म से उन्होंने यह ट्रेन पकड़ी। बाद में यह ट्रेन कालका एक्सप्रेस के रूप में जानी जाने लगी।
तीन साल पहले रेलवे ने इस ट्रेन का नामकरण नेताजी एक्सप्रेस कर दिया। ‘द ग्रेट एस्केप’ की यादों को सहेजने और उन्हें जीवंत रखने के लिए झारखंड के नेताजी सुभाष चंद्र बोस जंक्शन के प्लेटफार्म संख्या 1-2 के बीच उनकी आदमकद कांस्य प्रतिमा लगाई गई है। इस जंक्शन पर ‘द ग्रेट एस्केप’ की दास्तां भी संक्षेप रूप में एक शिलापट्ट पर लिखी गयी है।
कहानी ये है कि 2 जुलाई 1940 को हालवेल मूवमेंट के कारण नेताजी को भारतीय रक्षा कानून की धारा 129 के तहत गिरफ्तार किया गया था। डिप्टी कमिश्नर जान ब्रीन ने उन्हें गिरफ्तार कर प्रेसीडेंसी जेल भेजा था। जेल जाने के बाद उन्होंने आमरण अनशन किया। उनकी तबीयत खराब हो गई। तब, अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें 5 दिसंबर 1940 को इस शर्त पर रिहा किया कि तबीयत ठीक होने पर पुन: गिरफ्तार किया जाएगा। नेताजी रिहा होकर कोलकाता के एल्गिन रोड स्थित अपने आवास आए।
केस की सुनवाई 27 जनवरी 1941 को थी। ब्रिटिश हुकूमत को 26 जनवरी को पता चला कि नेताजी तो कलकत्ता में नहीं हैं। नेताजी तो आठ दिन पहले 16-17 जनवरी की रात करीब एक बजे ही हुलिया बदलकर वहां से गोमो के लिए निकल गये थे। बताया जाता है कि भतीजे डॉ. शिशिर बोस के साथ गोमो पहुंचने के बाद वह गोमो हटियाटाड़ के जंगल में छिपे रहे। जंगल में ही स्वतंत्रता सेनानी अलीजान और अधिवक्ता चिरंजीव बाबू के साथ गुप्त बैठक की थी।
इसके बाद रात में वह गोमो के लोको बाजार में मो. अब्दुल्ला के यहां पहुंचे थे। गोमो से कालका मेल में सवार होकर गए तो उसके बाद कभी अंग्रेजों के हाथ नहीं लगे। शिशिर बोस अपनी किताब में लिखते हैं, "लका मेल गोमो स्टेशन पर देर रात आती थी। गोमो स्टेशन पर नींद भरी आंखों वाले एक कुली ने सुभाष चंद्र बोस का सामान उठाया। मैंने अपने रंगा काका बाबू को कुली के पीछे धीमे-धीमे ओवरब्रिज पर चढ़ते देखा। थोड़ी देर बाद वो चलते-चलते अंधेरे में गायब हो गए। कुछ ही मिनटों में कलकत्ता से चली कालका मेल वहां पहुंच गई। मैं तब तक स्टेशन के बाहर ही खड़ा था। दो मिनट बाद ही मुझे कालका मेल के आगे बढ़ते पहियों की आवाज़ सुनाई दी।"
इतिहास के दस्तावेज बताते हैं कि अंग्रेजी हुकूमत को सुभाष चंद्र बोस के गायब होने की खबर नौ दिनों बाद 27 जनवरी को लगी थी। नेताजी सुभाष चंद्र बोस के सम्मान में रेल मंत्रालय ने वर्ष 2009 में गोमो स्टेशन का नाम नेताजी सुभाष चंद्र बोस गोमो जंक्शन कर दिया। 23 जनवरी 2009 को तत्कालीन रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव ने यहां इनके स्मारक का लोकार्पण किया था।
--आईएएनएस
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