iGrain India - नई दिल्ली । हालांकि भाजपा सरकार के प्रथम कार्यकाल की तुलना में दूसरे कार्यकाल के दौरान खाद्य महंगाई काफी ऊंची रही जिससे आम आदमी की कठिनाई बढ़ गई लेकिन दूसरी ओर उससे किसानों को काफी राहत भी मिली।
लोकसभा चुनाव के दौरान विपक्षी दलों द्वारा महंगाई गरीबी एवं बेरोजगारी जैसे मुद्दों पर सरकार को घरेने का हर संभव प्रयास किया गया लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि कृषि संकट का मुद्दा इस बार आम चुनाव पर कम हावी रहा।
गेहूं, चावल, चीनी और दाल-दलहनों के भाव लम्बे समय से ऊंचे स्तर पर कायम है और इसे नीचे लाने का सरकारी प्रयास अब तक ज्यादा कारगर साबित नहीं हुआ है।
दरअसल अमरीकी डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपए का भारी अवमूलयन होने से देश में विदेशों से होने वाले आयात का खर्च काफी ऊंचा बैठ रहा है लेकिन इससे भी बढ़ा मुद्दा घरेलू उत्पादन में आई गिरावट तथा किसानों में स्टॉक रोकने की बढ़ती प्रवृत्ति का है।
किसान बार-बार सरकार से कृषि फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी (वैधानिक बाध्यता) देने की मांग कर रहा है लेकिन सरकार इसके लिए तैयार नहीं हैं क्योंकि इससे खाद्य महंगाई में और भी इजाफा हो सकता है। वस्तुतः सरकार ने किसानों को पहले ही सब्ज बाग दिखा दिया था लेकिन बाद में उसकी हरियाली को बरकरार रखने पर ध्यान नहीं दिया।
इसके फलस्वरूप किसानों ने कुछ प्रमुख जिंसों का स्टॉक रोकना शुरू कर दिया जिससे बाजार में इसकी आपूर्ति प्रभावित होने लगी और कीमतों में नियमित रूप से इजाफा होता रहा।
किसानी माल को बाजार में उतरवाने का प्रयास करने के बजाए सरकार ने उद्योग- व्यापार क्षेत्र पर शिकंजा कस दिया मगर इसका कोई सार्थक परिणाम नहीं आया। विदेशों से दलहनों का आयात बढ़ाने की कोशिश हुई मगर कीमतों पर अंकुश लगाने में यह नीति भी कारगर साबित नहीं हुई।
किसानों ने गेहूं का स्टॉक भी रोक रखा है जिससे इसका मंडी भाव मजबूत बना हुआ है। गेहूं, सफेद गैर बासमती चावल एवं चीनी के निर्यात पर प्रतिबंध लगाने का निर्णय भी अपेक्षित परिणाम देने में असफल रहा है।