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कपास बाजार की दशा और दिशा

प्रकाशित 23/11/2024, 06:02 pm
कपास बाजार की दशा और दिशा
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iGrain India - भारत दुनिया में कपास (रूई) के शीर्ष उत्पादक, खपतकर्ता एवं निर्यातक देशों में शामिल है और यहां उत्पादन तथा उपयोग के बदलते समीकरण के अनुरूप  बाजार में तेजी-मंदी का माहौल बनता है।

चालू मार्केटिंग सीजन के दौरान कपास के घरेलू उत्पादन में गिरावट आने की संभावना है और मंडियों में इसकी आवक की गति धीमी तथा मात्रा सीमित देखी जा रही है लेकिन इसके बावजूद कीमतों में नरमी का वातावरण बना हुआ है।

लेकिन यह निम्नस्तरीय मूल्य ही स्पिनिंग मिलों को आकर्षित करेगा और वे इसकी खरीद में अच्छी दिलचस्पी दिखा सकती है। इससे कपास के घरेलू कारोबार में सुधार आने के आसार हैं।

इसके साथ-साथ इसकी निर्यात मांग में भी बढ़ोत्तरी होने की उम्मीद है। केन्द्र सरकार की अधीनस्थ एजेंसी- भारतीय कपास निगम (सीसीआई) द्वारा कुछ राज्यों में किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर कपास निगम (सीसीआई) द्वारा कुछ राज्यों में किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर कपास की खरीद की जा रही है।

इससे उत्पादकों को राहत मिलने लगी है। रूई का भाव घटकर काफी नीचे आ गया है और अब यहां से इसमें वृद्धि का सिलसिला आरंभ हो सकता है क्योंकि इसके लिए परिस्थितियां अनुकूल होने लगी है।

कुछ दिन पूर्व रूई का भाव लुढ़ककर 53,000 रुपए प्रति कैंडी (356 किलो) के निम्न स्तर पर आ गया था मगर बाद में स्थिर हो गया और अब कुछ सुधरने लगा है।

इसका प्रमुख कारण सरकारी एजेंसी द्वारा खरीद की रफ्तार बढ़ाना माना जा रहा है। कपास का भाव अब भी देश भर की मंडियों में 6500 से 7000 रुपए प्रति क्विंटल के बीच चल रहा है जो न्यूनतम समर्थन मूल्य 7521 रुपए प्रति क्विंटल से काफी नीचे है।

बिजाई क्षेत्र में भारी गिरावट आने तथा कुछ इलाकों में प्राकृतिक आपदाओं के प्रकोप से उत्पादन घटने की संभावना के बावजूद कपास के दाम में मंदी आने से थोड़ी हैरानी हो रही है।

लेकिन कारणों की पड़ताल करने से पता चलता है कि एक तो कॉटन टेक्सटाइल मिलों में रूई की मांग कमजोर पड़ गई है और दूसरे, कॉटन सीड (बिनौला) का भाव घटकर 3000-3500 रुपए प्रति क्विंटल रह गया है जो सीजन के आरंभ में 3600-4100  रुपए प्रति क्विंटल के बीच चल रहा था। 

मंडियों में अब अच्छी क्वालिटी की कपास की आवक धीरे-धीरे बढ़ने लगी है और इसकी औसत दैनिक आपूर्ति 1.60 लाख गांठ (170 किलो की प्रत्येक गांठ) के आसपास पहुंच गई है। कॉटन मिलों की कमजोर मांग के कारण इस आवक का लगभग आधा भाग सरकारी एजेंसी को खरीदना पड़ रहा है।  

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