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विष्णु नारायण भातखंडे की जयंती आज, सीमाओं में खुद को नहीं बांधा, 'आधुनिक हिंदुस्तानी संगीत के जनक' ने देश भ्रमण कर सीखा और साधा सुर

प्रकाशित 10/08/2024, 05:34 pm
विष्णु नारायण भातखंडे की जयंती आज, सीमाओं में खुद को नहीं बांधा, \'आधुनिक हिंदुस्तानी संगीत के जनक\' ने देश भ्रमण कर सीखा और साधा सुर

नई दिल्ली, 10 अगस्त (आईएएनएस)। विष्णु नारायण भातखंडे, संगीत के पुरोधा और कला के प्रति अपना सर्वस्व समर्पित करने वाली शख्सियत का नाम है। शास्त्रीय संगीत को सुनने समझने वालों के लिए देवता तुल्य हैं भातखंडे। विष्णु नारायण भातखंडे को आधुनिक हिंदुस्तानी संगीत का जनक भी कहा जाता है। उन्होंने अपना पूरा जीवन हिंदुस्तानी संगीत के लिए समर्पित कर दिया। बचपन से ही उन्हें संगीत का शौक था जो आगे चलकर एक जुनून में तबदील हो गया। उन्होंने देशभर में घूम-घूम कर संगीत सीखा और बाद में किताबें भी लिखीं।

आधुनिक हिंदुस्तानी संगीत के जनक पंडित विष्णु नारायण भातखंडे का जन्म 10 अगस्त, 1860 मुंबई (बॉम्बे) में हुआ। वह हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के विद्वान थे। उन्होंने शास्त्रीय संगीत के विकास के लिए भातखंडे संगीत-शास्त्र की रचना की और कई संस्थाओं व शिक्षा केंद्रों को भी स्थापित किया। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत पर पहला आधुनिक ग्रंथ लिखा जिसे "हिंदुस्तानी संगीत पद्धति" को चार भागों में प्रकाशित किया गया।

भातखंडे ने संगीत को समझने और उसे सीखने के लिए पूरे भारत की यात्रा की। उन्होंने देश के बड़े संगीत उस्तादों और पंडितों से मुलाकात कर संगीत पर शोध किया। भारत में अपनी यात्राओं के दौरान उन्होंने बड़ौदा, ग्वालियर और रामपुर की रियासतों में समय अधिकतर समय बिताया। जब वे रामपुर में थे तो उनकी मुलाकात प्रसिद्ध वीणा वादक उस्ताद वजीर खान से हुई। यहां वे उनके शिष्य बन गए।

इसके बाद 1904 में वह मद्रास (चेन्नई) गए। यहां उन्होंने सुब्बाराम दीक्षितर जैसे महान संगीतकारों से मुलाकात की। उन्होंने दक्षिण भारत के अनुभव लिखे, जो बाद में ‘मेरी दक्षिण भारत की संगीत यात्रा’ के रूप में प्रकाशित हुई।

पंडित विष्णु नारायण भातखंडे के बारे में बताया जाता है कि उन्हें संगीत में रुचि अपने माता-पिता की वजह से हुई। उनके माता-पिता को संगीत में रुचि थी। मां को सुन वह भी गाने लग जाते थे। माता-पिता ने संगीत में उनका रुझान देखा और उन्हें इस क्षेत्र में ही आगे बढ़ाने का निर्णय लिया। उन्होंने इस विषय का भी अध्ययन करना शुरू कर दिया।

पुणे के डेक्कन कॉलेज से बीए की डिग्री पूरी की और इसके बाद बॉम्बे विश्वविद्यालय के एलफिंस्टन कॉलेज से कानून की डिग्री हासिल की। कुछ समय के लिए वह वकालत से जुड़े रहे। लेकिन, पत्नी और बेटी की मृत्यु के बाद उन्होंने वकालत छोड़ अपना पूरा ध्यान संगीत पर केंद्रित कर दिया।

उन्होंने 1916 में बड़ोदा में देश भर के संगीतज्ञों की विशाल परिषद् का आयोजन किया। इसके बाद दिल्ली, बनारस और लखनऊ में भी संगीत परिषदें आयोजित की गई। संगीत की ओर झुकाव के कारण उन्होंने संगीत महाविद्यालय भी स्थापित किए। इनमें लखनऊ का भातखंडे संगीत विद्यापीठ भी शामिल है। इसके अलावा ग्वालियर में माधव संगीत महाविद्यालय की स्थापना और बड़ौदा राजकीय संगीत विद्यालय का पुनर्गठन भी किया।

संगीत के क्षेत्र में उन्होंने कई पुस्तकें भी लिखीं। जिसमें भातखंडे संगीत-शास्त्र के चार भाग और क्रमिक पुस्तक-मालिका के छह भाग शामिल हैं। भातखंडे की पहली प्रकाशित कृति स्वर मालिका एक पुस्तिका थी, जिसमें सभी प्रचलित रागों के बारे में विस्तार से बताया गया है। इसके अलावा उन्होंने 1909 में 'चतुर-पंडित' के छद्म नाम से संस्कृत में श्री मल्लक्षय संगीतम प्रकाशित किया था।

अपनी पूरी जिंदगी को संगीत के लिए दान करने वाले विष्णु नारायण भातखंडे का अंत काफी दु:खद रहा। भातखंडे की 1933 में लकवा और जांघ की हड्डी टूट गई थी और इसके तीन साल के बाद 19 सितंबर 1936 को उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया।

--आईएएनएस

एफएम/केआर

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