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महाराष्ट्र की स्थिति: जाति-आधारित जनगणना अधिक समावेशन की दिशा में अगला कदम

प्रकाशित 07/10/2023, 09:11 pm
महाराष्ट्र की स्थिति: जाति-आधारित जनगणना अधिक समावेशन की दिशा में अगला कदम
BSESN
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मुंबई, 7 अक्टूबर (आईएएनएस)। हाल ही में बिहार जाति-आधारित सर्वेक्षण 2022 के बाद हलचल मच गई। महाराष्ट्र में सभी प्रमुख राजनीतिक दल सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक तथा राजनीतिक स्तर पर समावेशन को सक्षम करने के लिए राज्य में विभिन्न समुदायों की ऐसी ही गणना की मांग कर रहे हैं।अधिकांश पार्टियां बिहार सर्वेक्षण का विस्तार से अध्ययन कर रही हैं, जिसमें बताया गया है कि राज्य की 13 करोड़ आबादी में 112 अति पिछड़ी जातियां 36.01 प्रतिशत हैं। इसके बाद 29 ओबीसी जातियां हैं, जिनकी हिस्सेदारी 27.12 प्रतिशत है, जिसमें 14.26 प्रतिशत हिस्सेदारी के साथ यादवों का दबदबा है, जबकि एससी 19.65 प्रतिशत है और सामान्य अनारक्षित वर्ग मात्र 15.52 प्रतिशत है।

कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष एम. आरिफ नसीम खान, शिवसेना (यूबीटी) की उपनेता सुषमा अंधारे, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के मुख्य प्रवक्ता महेश तापसे और वंचित बहुजन अघाड़ी की अध्यक्ष रेखा ठाकुर जैसे महाराष्ट्र के वरिष्ठ नेताओं ने बिहार सर्वेक्षण और भविष्य में अन्य राज्यों तथा देश में इसकी संभावनाओं पर खुलकर अपनी ऱाय रखी।

खान ने कहा, “हम केंद्र सरकार द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर एक समान जाति-आधारित जनगणना आयोजित करने की पुरजोर मांग कर रहे हैं… हमें राष्ट्रीय मुख्यधारा में अधिक समावेश सुनिश्चित करने और उन तक राज्य-केंद्रीय कल्याण योजनाओं के लाभ पहुंचाने के लिए सभी जातियों, समुदायों आदि पर स्पष्टता की आवश्यकता है।”

अंधारे ने कहा कि "बिहार सर्वेक्षण का राज्यों और राष्ट्रीय राजनीति पर प्रभाव पड़ेगा, लेकिन हमें इंतजार करने और देखने की जरूरत है कि किस हद तक", खासकर जब राजनीतिक लाभ केवल 'उन लोगों को मिलता है जो सत्ता के लिए उपयोगी हैं' या 'उपद्रवी के रूप में उनका मोल' है।

अंधारे ने आग्रह किया, "चूंकि हम भारतीय जनता पार्टी से ऐसा करने की उम्मीद नहीं कर सकते हैं, इसलिए मुझे लगता है कि राष्ट्रीय विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' सभी गैर-भाजपा राज्यों में समानता और न्याय के लिए ऐसे जाति-आधारित सर्वेक्षण का नेतृत्व कर सकता है।"

ठाकुर को लगता है कि बिहार सर्वेक्षण ने सरकार के लिए "वास्तविक जमीनी हकीकत सामने ला दी है" और अतीत में कई लोगों के विरोधाभासी दावों को खारिज कर दिया है, जिसका प्रभाव पहले से ही दिखने लगा है।

ठाकुर ने कहा, "1990 में लागू मंडल आयोग ने बहुत वैज्ञानिक तरीके से जातियों की गणना की थी, और कुल आबादी के 52 प्रतिशत के तत्कालीन अनुमान को 'अविश्वसनीय' करार दिया गया था, और अदालतों में चुनौती दी गई थी।"

उन्होंने कहा कि अब बिहार सर्वेक्षण रिपोर्ट का देश भर में बड़े पैमाने पर असर होगा क्योंकि यह विभिन्न राज्यों में विभिन्न जातियों की समान स्थिति की ओर इशारा करता है।

तापसे ने कहा कि बिहार के आंकड़ों से पता चलता है कि लगभग 85 प्रतिशत आबादी में ईबीसी, एससी, एसटी, ओबीसी और अन्य समुदाय शामिल हैं, जिसकी शायद ज्यादातर लोगों को उम्मीद नहीं थी।

तापसे ने पूछा, “अगर सिर्फ बिहार में यह स्थिति है, तो पूरे भारत में क्या स्थिति होगी? एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार लगातार महाराष्ट्र में जाति आधारित सर्वेक्षण की मांग कर रहे हैं, लेकिन सरकार ऐसा करने में अनिच्छुक है। जब तक सरकार के पास प्रासंगिक डेटा नहीं होगा, वह वंचितों के लिए विभिन्न कल्याणकारी उपायों को प्रभावी ढंग से कैसे लागू कर सकती है।”

खान ने सहमति जताते हुए कहा कि भारत एक लोकतांत्रिक राष्ट्र है और जब तक विभिन्न जातियों/समुदायों की सटीक स्थिति पर उचित, प्रामाणिक डेटा उपलब्ध नहीं कराया जाता है, तब तक सबसे वंचित वर्गों के साथ न्याय करना असंभव होगा।

खान ने आग्रह किया, "आजादी के 75 साल हो गए हैं, और अभी भी आबादी का एक बड़ा हिस्सा राष्ट्रीय आर्थिक या राजनीतिक मुख्यधारा में नहीं है... अगर जरूरत पड़ी तो पिछड़ों को आगे लाना सुनिश्चित करने के लिए कोटा बढ़ाया जा सकता है।"

महाराष्ट्र में लगभग पाँच लाख की संख्या वाले सूक्ष्म-ओबीसी (घुमंतू जनजाति-बी) से आने वाले अंधारे ने बताया कि पिछले 50 वर्षों से संसद में केवल 545 निर्वाचित (लोकसभा) सांसद हैं, जिसे 65 करोड़ की जनसंख्या के आधार पर लागू किया गया था। लेकिन अब आबादी 130 करोड़ के पार होने पर कम से कम एक हजार सांसद होने चाहिए।

अंधारे ने कहा, “अफसोस की बात है कि मेरे छोटे समुदाय से कोई भी राज्य में ग्राम पंचायत स्तर पर निर्वाचित नहीं हुआ है। मेरे कबीले के लगभग दो-तिहाई लोगों के पास आधार कार्ड भी नहीं हैं। यदि आप उपयोगी हैं या उपद्रवकारी हैं तो आपको राजनीतिक लाभ मिलता है, अन्यथा वही राजनीतिक परिवार या प्रमुख पिछड़े समूह सत्ता और प्रभाव पर कब्जा किये रहेंगे।''

ठाकुर को लगता है कि 'बिहार अंधेरे में दीपक जला रहा है' और अब यह अन्य सभी राज्यों, विशेष रूप से विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्यों पर निर्भर है कि वे तुरंत इसी तरह का जाति-आधारित सर्वेक्षण कर उन जातियों/समुदायों को सामने लाएं जिन्हें बड़े समूहों द्वारा पीछे धकेल दिया गया, जैसे कि महाराष्ट्र में, जहां पिछले 35 वर्षों में ओबीसी में 272 से बढ़कर 376 जातियां हो गई है, और सभी को आवश्यकतानुसार आरक्षण या अन्य लाभ प्रदान किया जा रहा हैं।

ठाकुर ने आगाह किया, “मेरा डर यह है कि वर्तमान शासक बिहार सर्वेक्षण के निहितार्थों से डरे हुए हैं और पिछले महीने महिला आरक्षण विधेयक को अचानक पेश करना जाति-आधारित कोटा की मांग को कुचलने की एक चाल थी… हालाँकि, मंडल आयोग के बाद जागरूकता का स्तर बहुत अधिक है और इस तरह की छेड़छाड़ की रणनीति का उल्टा असर हो सकता है,''।

नेता इस बात पर एकमत हैं कि बिहार सर्वेक्षण ने संभवतः एक राजनीतिक भ्रम का पिटारा खोल दिया है, और जैसा कि दिवंगत प्रधान मंत्री वी.पी. सिंह ने 2001 में एक बार (इस संवाददाता से) कहा था, "वंचित जातियां और वर्ग भारतीय राजनीति में एक प्रमुख कारक बने रहेंगे - कम से कम अगले 75 वर्ष तक", यह भविष्‍यवाणी सच साबित हो सकती है।

--आईएएनएस

एकेजे

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