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देश की सरहदों के पार भी फैल रही झारखंड के रेशमी धागों की चमक

प्रकाशित 07/08/2022, 06:12 pm
अपडेटेड 07/08/2022, 01:15 pm
देश की सरहदों के पार भी फैल रही झारखंड के रेशमी धागों की चमक

देश की सरहदों के पार भी फैल रही झारखंड के रेशमी धागों की चमक

रांची, 7 अगस्त (आईएएनएस)। कलाई पर रेशमी धागे बांधने का त्योहार इस बार आगामी 11-12 अगस्त को मनेगा, लेकिन क्या आपको पता है कि ये रेशम बनता कैसे है और आता कहां से है? इस सवाल का माकूल जवाब आपको झारखंड में मिलेगा। पूरे देश में रेशम की जो चमक है, उसमें एक बड़ी हिस्सेदारी इस प्रदेश की है।खास तौर पर देश में कुल तसर सिल्क उत्पादन में 76.4 फीसदी हिस्सा झारखंड का है। तसर सिल्क की खेती, उत्पादन और कारोबार में पूरे देश में 3.5 लाख लोग जुड़े हैं और इनमें से 2.2 लाख लोग अकेले झारखंड के हैं। यहां का तसर सिल्क देश के विभिन्न हिस्सों के अलावा लगभग 10 देशों में पहुंचता है।

दरअसल, इस प्रदेश की आबोहवा तसर रेशम के कीड़ों के पालन-प्रजनन के लिए सबसे अनुकूल है। इसके लिए सामान्य तौर पर 30 डिग्री सेल्सियस तापमान की जरूरत होती है और झारखंड के ज्यादातर इलाकों में साल के 365 में से 175-180 दिनों तक तापमान इसी के आसपास रहता है। तसर रेशम के कीड़ों की पैदाइश के लिए अर्जुन, आसन और साल के पेड़ सबसे ज्यादा उपयुक्त माने जाते हैं और झारखंड में ये पेड़ बहुतायत में हैं।

पिछले दो दशकों में देश-विदेश में झारखंड के कुचाई सिल्क की जबर्दस्त धाक कायम हो गयी है। इस खास किस्म के रेशम (सिल्क) की जापान, फ्रांस, जर्मनी सहित कई देशों में बहुत अच्छी डिमांड है। झारखंड में रेशम के उत्पादन में जुटे लोगों को सबसे ज्यादा तकनीकी मदद केंद्रीय रेशम बोर्ड से मिली है।

मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने बीते हफ्ते रांची में वल्र्ड ट्रेड सेंटर की आधारशिला रखते हुए यह उम्मीद जतायी कि इस सेंटर के जरिए हमारी धरती पर उत्पादित होने वाले तसर सिल्क की चमक और दूर तक फैलेगी।

रेशम वैज्ञानिक आरबी सिन्हा कहते हैं कि झारखंड के अलग प्रदेश बनने के बाद रेशम उत्पादन में 23 से 24 गुणा वृद्धि हुई है। अभी यहां 2 हजार मीट्रिक टन से भी ज्यादा रेशम का उत्पादन होता है। केंद्र सरकार की ओर से संसद में रेशम उत्पादन को लेकर पेश किये गये आंकड़े के अनुसार 2017-18 में झारखंड में 2217 मीट्रिक टन तसर उत्पादन हुआ, जबकि 2018-19 में यह मात्रा 2372 और 2019-20 में 2399 मीट्रिक टन रही।

हालांकि कोविड के चलते पिछले दो वर्षों में यहां सिल्क उत्पादन में कमी दर्ज की गयी है। वर्ष 2020-21 में 2185 और 2021-22 में 1046 मीट्रिक टन रेशम का उत्पादन ही हो पाया। इस वर्ष राज्य ने तीन हजार मीट्रिक टन रेशम उत्पादन का लक्ष्य रखा है।

झारखंड में उत्पादित होने वाले तसर सिल्क की खास बात यह है कि यह पूरी तरह प्राकृतिक होता है। इसके उत्पादन में किसी तरह के केमिकल का इस्तेमाल नहीं होता। तसर सिल्क का सबसे ज्यादा उत्पादन राज्य के सरायकेला, खरसावां, पश्चिम सिंहभूम में हो रहा है। तसर सिल्क के उत्पादन की प्रक्रिया के तीन चरण हैं। सबसे पहले साल, अर्जुन और आसन के पेड़ों पर टसर के कीड़े छोड़े जाते हैं। दूसरे चरण में एक निर्धारित समय में ये कीड़े ककून की शक्ल धारण करते हैं और तीसरे चरण में ककून की प्रोसेसिंग कर धागा निकाले जाते हैं।

तसर की खेती ने झारखंड के जनजातीय इलाकों में दो लाख से ज्यादा लोगों को एक हद तक आर्थिक आत्मनिर्भरता दी है। झारखंड सरकार के ग्रामीण विकास विभाग के अंतर्गत संचालित झारखंड स्टेट लाइवलीहुड प्रमोशन सोसाइटी (जेएसएलपीएस) ने वर्ष 2017 से लेकर अब तक 8 जिलों के 20 प्रखंडों में रेशम की वैज्ञानिक खेती से लगभग 18 हजार परिवारों को जोड़ा है। केंद्रीय रेशम बोर्ड, झारखंड सिल्क टेक्सटाइल एंड हैंडीक्राफ्ट डेवलपमेंट कॉरपोरेशन और झारखंड राज्य खादी बोर्ड की ओर से तसर सिल्क के उत्पादन के लिए अलग-अलग प्रोजेक्ट चलाये जा रहे हैं।

झारखंड स्टेट लाइवलीहुड प्रमोशन सोसाइटी (जेएसएलपीएस) प्रोजेक्ट रेशम के तहत प्रशिक्षण पाकर रेशम उत्पादन में जुटीं चक्रधरपुर के मझगांव के सुदूरवर्ती गांव की निवासी इंदिरावती तिरिया भी उन किसानों में हैं, जिन्होंने इस तकनीक का प्रशिक्षण लेकर सफल तसर उत्पादक के रूप में इलाके में अपनी खास पहचान बनायी है। इंदिरावती कहती हैं, मुझे कभी लगा नहीं था कि तसर मेरे लिए इतना फायदेमंद साबित होगा।

मुझे सरकार द्वारा प्रशिक्षण मिला। बीते साल हमारे परिवार को 1 लाख 69 हजार रुपये की आय हुई। कुचाई के मरांगहातु निवासी रेशम दूत जोगेन मुंडा कहते हैं कि तसर की खेती ने हमारी जिंदगी को नई चमक दी है। तसर उत्पादन के काम में महिलाएं बड़ी संख्या में जुड़ी हैं। महज दो महीने की मेहनत में हजारों परिवार पचास से साठ हजार रुपये सालाना तक की कमाई कर रहे हैं।

रेशम तैयार करने के प्रक्रिया में कीड़ों को मारने की वजह से कई लोग खास तौर पर जैन धर्मावलंबी इसके इस्तेमाल से परहेज करते रहे हैं। इस वजह से अब झारखंड के कई इलाकों में अहिंसा सिल्क का उत्पादन किया जा रहा है।

अंहिसा सिल्क तैयार करने के लिए कोकून के अंदर पाए जाने वाले कीड़े को मारने के बजाए इसे प्राकृतिक तरीके तितली बनकर उड़ने दिया जाता है। इसके बाद उस कोकून से धागा तैयार किया जाता है। झारखंड के दुमका, रांची के नगड़ी सहित कई स्थानों पर इस खास तरह के रेशम का उत्पादन पिछले कई वर्षों से किया जा रहा है।

--आईएएनएस

एसएनसी/एसकेपी

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