iGrain India - नई दिल्ली । पिछले साल की तुलना में चालू वर्ष के दौरान राष्ट्रीय स्तर पर कपास के बिजाई क्षेत्र में 10-15 प्रतिशत की गिरावट आने की आशंका व्यक्त की जा रही है क्योंकि बढ़ते लागत खर्च श्रमिकों को समस्या एवं कमजोर बाजार भाव के कारण कपास उत्पादकों को अपने उत्पाद का आकर्षक एवं लाभप्रद मूल्य प्राप्त करने के लिए कठिन संघर्ष करना पड़ सकता है।
इसके अलावा कपास की फसल पर कीड़ों-रोगों के प्रकोप का खतरा भी है जबकि मौसम प्रतिकूल होने से अक्सर रूई की औसत उपज दर घट जाती है और इसकी क्वालिटी भी प्रभावित होती है।
ऊंचे लागत खर्च एवं मजदूरों की समस्या को देखते हुए महाराष्ट्र के किसानों को अब कपास की खेती करना उतना लाभप्रद प्रतीत नहीं होता है जितना कुछ वर्ष पूर्व होता था।
मालूम हो देश में कपास की सर्वाधिक खेती महाराष्ट्र में ही होती है जबकि इसके उत्पादन में वह गुजरात के बाद दूसरे नम्बर पर रहता है।
वर्षा पहले कपास की फसल को किसानों के लिए सफेद सोना माना जाता था लेकिन अब यह सामान्य श्रेणी में शामिल है या मजबूती की फसल बन गई है।
अकोला (महाराष्ट्र) के किसानों का कहना है कि कपास की खेती पर लागत खर्च प्रतिवर्ष बढ़ता जा रहा है और खासकर मजदूरों पर होने वाले खर्च में भारी बढ़ोत्तरी हुई है इसलिए अब वह किसानों के लिए लाभदायक नहीं हैं।
लेकिन दूसरा कोई विकल्प भी नहीं है। तुवर, उड़द एवं अन्य दलहनों की खेती की अपनी-अपनी समस्याएं हैं इसलिए किसानों को विवश होकर कपास की तरफ मुड़ना पड़ता है।
भले ही इससे कोई खास फायदा हो या न हो। उत्तरी राज्यों और खासकर पंजाब तथा राजस्थान में कपास के बिजाई क्षेत्र में पहले ही भारी गिरावट आ चुकी है जबकि गुजरात में भी इसका क्षेत्रफल काफी घटने की संभावना है।
वैसे केन्द्र सरकार ने कपास का न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाकर 7121 रुपए प्रति क्विंटल नियत कर दिया है लेकिन किसान इससे ज्यादा उत्साहित नहीं दिख रहे हैं। उत्तरी महाराष्ट्र में कपास का क्षेत्रफल 20 प्रतिशत तक घटने की सूचना मिल रही है।