iGrain India - केन्द्र सरकार प्रत्येक वर्ष खरीफ एवं रबी सीजन की फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का निर्धारण करती है और इस पर कुछ फसलों की खरीद भी नियमित रूप से करती है। लेकिन एमएसपी का संतुलन और समीकरण लगातार जटिल तथा बेमेल होता जा रहा है।
एक तरफ कृषक संगठन सभी फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की वैधानिक गारंटी देने की जोरदार मांग कर रहा है तो दूसरी ओर सरकार की नीति इससे अलग दिखाई पड़ रही है। दरअसल एमएसपी पर होने वाली खरीद पर खर्च बहुत ज्यादा बढ़ गया है जिससे अर्थ व्यवस्था पर काफी दबाव पड़ रहा है।
इसके बावजूद एमएसपी में प्रत्येक वर्ष बढ़ोत्तरी की जा रही है ताकि किसानों को खुश और संतुष्ट किया जा सके। लेकिन इसके तरीके में कोई बदलाव करने की कोशिश नहीं हो रही है।
सरकार का ध्यान मुख्यत: धान एवं गेहूं की खरीद पर केन्द्रित रहता है क्योंकि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए केन्द्रीय पूल में हर समय इसका पर्याप्त स्टॉक मौजूद रहना जरूरी है।
हालांकि आवश्यकता के अनुसार सरकारी एजेंसियां कुछ दलहनों, कपास एवं तिलहनों की खरीद भी करती हैं मगर कुल उत्पादन के मुकाबले इसकी मात्रा सीमित रहती है।
मोटे अनाजों की खरीद पर विशेष ध्यान नहीं दिया जाता है जबकि यह मुख्य खाद्यान्न का बेहतर विकल्प साबित हो सकता है।
एक नए अध्ययन से पता चला है कि एमएसपी महज 6 प्रतिशत कृषि उत्पादन को कवर करता है जबकि शेष किसान इसके नाम से वंचित रह जाते हैं।
इसके बावजूद फसलों की खरीद पर होने वाला खर्च 2023-24 के वित्त वर्ष में उछलकर 13.50 ट्रिलियन रुपए की ऊंचाई पर पहुंच गया।
इस विशाल धनराशि का व्यय सीमित करने के लिए फसल विविधिकरण पर जोर दिए जाने की आवश्यकता है और इसके साथ-साथ बेहतर कृषि पद्धति को भी बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
कृषि उत्पादों की मूल्य श्रृंखला को आधुनिक बनाए जाने की जरूरत है। सम्पूर्ण कृषि एवं सम्बद्ध क्षेत्र के बास्केट में खाद्यान्न का योगदान महज 17 प्रतिशत है
जबकि लगभग 71 प्रतिशत का योगदान फलों, सब्जियों, मत्स्य पालन, वानिकी एवं पशुधन क्षेत्र का रहता है। इन उत्पादों के लिए न तो समर्थन मूल्य निर्धारित होता है और न ही उसकी सरकारी खरीद होती है।