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'मेरी गंगा कहां से लाओगे', जब उस्ताद बिस्मिल्लाह खान को मिला था अमेरिका में बसने का प्रस्ताव

प्रकाशित 21/08/2024, 05:50 pm
\'मेरी गंगा कहां से लाओगे\', जब उस्ताद बिस्मिल्लाह खान को मिला था अमेरिका में बसने का प्रस्ताव

नई दिल्ली, 21 अगस्त (आईएएनएस)। मौका था भारत की आजादी का और जगह थी दिल्ली का ऐतिहासिक लाल किला। 15 अगस्त 1947 को भारत को ब्रिटिश शासन से 200 साल की गुलामी के बाद आजादी मिली थी। इस ऐतिहासिक मौके पर एक ऐसी शख्सियत को भी बुलाया गया था जिन्होंने लाल किले पर शहनाई बजाकर भारत की आजादी को और भी यादगार बना दिया।हम बात कर रहे हैं उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की, जिन्होंने 1947 में भारत की स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर दिल्ली के लाल किले की प्राचीर से शहनाई की तान छेड़ी। यही नहीं, उन्होंने देश के पहले गणतंत्र दिवस के अवसर पर भी अपनी शहनाई से समां बांधा था। उस्ताद बिस्मिल्लाह खान ही थे, जिन्होंने देश ही नहीं अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भी अपनी शहनाई की मधुर तान से भारत का परिचय कराया। उस्ताद बिस्मिल्लाह खान का यह हुनर था कि जिसने भारत में शहनाई को जिंदा रखा।

उस्ताद बिस्मिल्लाह खान को बनारस से बड़ा प्रेम था। दूरदर्शन पर एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, “अगर किसी को सुरीला बनना है तो बनारस चला आए और गंगा जी के किनारे बैठ जाए, क्योंकि बनारस के नाम में “रस” आता है।”

बिस्मिल्लाह खान ने कहा था, “चाहे काशी विश्वनाथ मंदिर हो या बालाजी मंदिर या फिर गंगा घाट, यहां शहनाई बजाने में एक अलग ही सुकून मिलता है।”

जूही सिन्हा की किताब “बिस्मिल्लाह खान- बनारस के उस्ताद” भारत के सबसे महान कलाकारों में से एक बिस्मिल्लाह खान के घर-परिवार और मौसिकी से उनके प्रेम को रूबरू कराती है। इस किताब में बिस्मिल्लाह खान के डुमरांव जैसे छोटे कस्बे से बनारस और फिर दुनिया तक के सफर को बयां किया गया है।

बिस्मिल्लाह खान की उम्र जब 6 साल ही थी तब वह शहनाई की शिक्षा के लिए वाराणसी अपने मामा अली बख्श के पास आ गए थे। उनके उस्ताद मामा काशी विश्वनाथ मंदिर में शहनाई बजाते थे। यही से उन्होंने शहनाई को अपना पहला प्यार बनाया। वह रोजाना छह घंटे तक शहनाई का रियाज करते थे। उन्होंने 1937 में पहली बार ऑल इंडिया म्यूजिक कॉन्फ्रेंस में शहनाई बजाई। यहां से शुरू हुआ सिलसिला आगे भी जारी रहा और उन्होंने दुनियाभर में शहनाई की ऐसी तान छेड़ी कि सुनने वाले मुग्ध हो गए।

बिस्मिल्लाह खान ने गंगा-जमुनी तहजीब को भी बढ़ावा दिया। वह बाबा विश्वनाथ मंदिर में जाकर तो शहनाई बजाते ही थे। साथ ही गंगा किनारे बैठकर घंटों तक रियाज भी करते थे। त्योहार कोई भी हो, खान साहब की शहनाई के बगैर वो अधूरा ही था। उनके लिए संगीत ही उनका धर्म था।

उन्होंने यूएसए, कनाडा, बांग्लादेश, अफगानिस्तान, ईरान, इराक, वेस्ट अफ्रीका जैसे देशों में शहनाई बजाई। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, उनको अमेरिका में बसने का भी ऑफर दिया गया था। लेकिन वह भारत को नहीं छोड़ सकते थे। यहां तक कि बनारस छोड़ने के ख्याल से ही वह व्यथित हो जाते थे। बिस्मिल्लाह खान ने इस प्रस्ताव को यह कहकर ठुकरा दिया था कि, 'अमेरिका में आप मेरी गंगा कहां से लाओगे?'

उस्ताद बिस्मिल्लाह खान को भारत के चारों सर्वोच्च नागरिक सम्मान से सम्मानित किया गया है। उन्हें पद्म श्री (1961), पद्म भूषण (1968), पद्म विभूषण (1980) और 2001 में भारत रत्न से नवाजा गया था।

बताया जाता है कि उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की इच्छा थी कि वह इंडिया गेट पर शहनाई बजाकर शहीदों को श्रद्धांजलि दें। हालांकि, उनकी ये अंतिम इच्छा कभी पूरी नहीं हो पाई। 21 अगस्त 2006 को 90 साल की उम्र में महान शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खान ने दुनिया को अलविदा कह दिया था।

--आईएएनएस

एफएम/एएस

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